न जाने क्यों?
लोग प्यासे रह जाते हैं
पानी नहीं बचाते.
जलते रहते है
जेठ की दोपहरी में,
मगर पेड़ नहीं लगाते.
न जाने क्यों?
देखते हैं घायल को
सड़क पर तड़पते,
तड़प-तड़पकर कर
दम तोड़ते हुए
तमाशबीन बनकर,
मगर सहायता के लिए
आगे नहीं आते,
उसे अस्पताल
नहीं पहुंचाते.
न जाने क्यों?
देखते हैं सरेआम
झपटमारी, छेड़-छाड़,
नहीं करते विरोध,
मदद को
आगे नहीं आते.
काटकर कन्नी
निकल लेते हैं.
न जाने क्यों?
सहते रहते हैं
सारे जुल्मों-सितम
चुप-चाप ,
आवाज नहीं उठाते,
नहीं करते प्रतिकार.
न जाने क्यों?
रह लेते हैं
घुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?.
क्या खुब लिखा है आपने...बहुत सुंदर
ReplyDeleteदो सूरज वाला ग्रह भी ढूढ़ लिया गया है।
ReplyDeleteप्रेरित करती कविता अपनी सार्थकता सिद्ध करती है...
ReplyDeleteन जाने क्यूँ!!!!
ReplyDeleteकाश, लोग समझ पाते!
सहते रहते हैं
ReplyDeleteसारे जुल्मों-सितम
चुप-चाप ,
आवाज नहीं उठाते,
नहीं करते प्रतिकार.
न जाने क्यों?
यही तो समझ नही आता। शुभकामनायें।
खुद से किए जा रहे सवालों जैसा.
ReplyDeleteदेखते हैं सरेआम
ReplyDeleteझपटमारी, छेड़-छाड़,
नहीं करते विरोध,
मदद को
आगे नहीं आते.
काटकर कन्नी
निकल लेते हैं.
न जाने क्यों?....
बहुत सुंदर ....
न जाने क्यूं???
ReplyDeleteइसी बात का तो रोना है...
काश लोग यही बातें समझ जाते तो आज इस "न जाने क्यूं" की जरूरत ही न पड़ती...
बहुत ही सत्य रचना...
बहुत खूब
ReplyDeleteBehtreen NAjm Rajiv ji dil ko chu gayi
ReplyDeleteShahnawaz Siddiqui to me
ReplyDeleteआपकी कविता बहुत ही खूबसूरत है, लेकिन आपका भेजा हुआ लिंक नहीं चल रहा है, इसलिए आपके ब्लॉग पर नहीं जा पाया.
- शाहनवाज़
दिनेशराय द्विवेदी to me
ReplyDeleteरचना बेहतरीन है। लेकिन लिंक नहीं खुल रहा है।
vandana gupta to me
ReplyDeleteबस इसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता.........बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
veena srivastava to me
ReplyDeleteलिंक से ब्लॉग तक जा नहीं पाई.....आपने तो बहुत सही प्रश्न किया है और सारी बातों के बाद एक ही प्रश्न होता है...न जाने क्यों
बहुत सुंदर
रह लेते हैं
ReplyDeleteघुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?.
yahi aksar maine bhi socha hai
Rachana Dixit to me
ReplyDeleteआदरणीय राजीव जी,
" सच ही है,तड़प तो होनी ही चाहिए यदि कुछ पाना है. तड़प है तो कुछ भी हासिल किया जा सकता है"
न जाने क्यूं
ReplyDeleteबहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..
सार्थक सुंदर भाव..... बेहतरीन रचना
ReplyDeleteवाकई... न जाने क्यों ?
ReplyDeleteआपके इस ब्लाग को फालो कर रहा हूँ । यदि आप उचित समझें तो मेरे ब्लाग नजरिया पर आने के लिये लिंक ये है-
http://najariya.blogspot.com/
राजीव जी,
ReplyDeleteआपकी कविता में "क्यों".शब्द बड़े प्रश्न खड़े कर रहा है. मुझे "क्यों" पर किसी का एक शेर याद आ रहा है.आप भी देखिये:-
दुनिया में हर सवाल का कोई जवाब है.
लेकिन सवाल "क्यों' ही फकत लाजवाब है.
वैसे आपने प्रश्न सही उठाये हैं
कौन उत्तर दे .........
ReplyDeleteरह लेते हैं
ReplyDeleteघुप्प अँधेरे में
चुपचाप ,
दीया नहीं जलाते,
ढूंढ़कर नहीं लाते
दूसरा सूरज.
न जाने क्यों?...
हरेक पंक्ति मन को छू गयी..न जाने क्यों निशब्द कार दिया...
Rekha Srivastava
ReplyDeleteto me
show details Jan 28 (1 day ago)
राजीव जी,
आपका लिंक नहीं खुल पा रहा है, कविता तो मैंने पढ़ ली है उसकी टिप्पणी नीचे दे रही हूँ. आप उसको कमेन्ट में लगा दें.
अगर हम ये जान लें की क्यों ऐसा करते हैं लोग तो खुद ये सवाल नहीं करेंगे? उनकी संवेदनाएं हमारी जैसी नहीं होंगी कि दूसरे के दर्द से खुद तड़प जाते हैं. कैसे बचा लें किसी को ये सोच कर ही काम करते हैं. हम सिर्फ अपना कर्म करें फिर क्यों? नहीं कहना पड़ेगा. क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर तो हमारे पास भी नहीं है.
Thursday, January 27, 2011न जाने क्यों?
ReplyDeleteन जाने क्यों?
लोग प्यासे रह जाते हैं
पानी नहीं बचाते.
जलते रहते है
जेठ की दोपहरी में,
मगर पेड़ नहीं लगाते.
न जाने क्यों?
सच मे ऐसी रचनाएं दिल को छू जाती हैं।
n jaane kyon....bahut achchhi lagi...
ReplyDeleteन जाने क्यूँ ?????
ReplyDeleteऔर इन सवालों के कोई जवाब नहीं हैं..!!
"न जाने क्यूँ लोग
रिश्तों की मर्यादा भूल जाते हैं
अपने घर में बबूल लगाते हैं
और दूसरों के घर में
आम खाने जाते हैं...!!"
आपका ब्लाग देखा, सभी रचनाए बहुत अच्छी है।
ReplyDeleteसुनीता जी,बहुत-बहुत आभार.
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